Sunday, December 22, 2024
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कर्ज में डूबे छोटे किसानों की हालत खराब क्या सिर्फ MSP है रास्ता, जाने कैसे?

कर्ज में डूबे छोटे किसानों की हालत खराब क्या सिर्फ MSP है रास्ता, जाने कैसे?

न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर किसानों की लड़ाई करीब ढाई साल से चल रही है। किसानों का यह आंदोलन केंद्र सरकार द्वारा तीन कानून पारित किए जाने के बाद शुरू हुआ. इन कानूनों को सरकार ने कृषि सुधारों के तौर पर पेश किया और विपक्षी दलों तथा किसान संगठनों ने इन्हें पूंजीपतियों के लिए उपयुक्त नीति माना.

ये विवाद उस समय शुरू हुआ जब भारत सहित पूरी दुनिया में कोरोनावायरस की दूसरी लहर चरम पर थी. किसानों ने इन कानूनों के आने बाद से फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी की मांग शुरू कर दी. सरकार के लिए इस तरह का वादा आसान नहीं है क्योंकि इसके लिए सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ सकता है. लेकिन सवाल इस बात का है कि क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी से भारत के किसानों की दशा और दिशा में सुधार होगा? इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले में हमें कुछ आंकड़ों पर ध्यान होगा जो किसानों की हालत बयां करते हैं.

खेतिहर मजदूरी ही गांव में बेरोजगारी का विकल्प

भारत की आजादी के समय 70 फीसदी लोग खेती से जुड़े कामों में जुड़े थे. देश की राष्ट्रीय आय का 54 फीसदी हिस्सा भी इसी सेक्टर से आता था. लेकिन साल दर साल राष्ट्रीय उत्पाद में खेती का हिस्सा घटता चला गया. साल 2019-20 के आंकड़ों पर नजर डालें तो राष्ट्रीय उत्पाद में खेती का हिस्सा 17 फीसदी से भी कम रह गया.

इसके साथ ही खेती से जुड़े लोगों की हिस्सेदारी में भी गिरावट आई है. आजादी के समय 70 फीसदी लोग खेती से जुड़े थे जो अब घटकर 54 फीसदी पर आ गई है. इसमें एक आंकड़ा और भी चौंकाने वाला है. साल 2017 में किसानों की आय दोगुनी करने के लिए बनाई गई समिति ने पाया है कि भले ही देश की जीडीपी में खेती की हिस्सेदारी घट रही हो लेकिन इस सेक्टर में काम करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. इसका मतलब साफ है कि खेती ही भले ही घाटे का सौदा बन रही है,लेकिन गांवों में बेरोजगारों को रोजी-रोटी देने में आज भी यही सेक्टर सबसे आगे है.

खेतिहर या भूमिहीन मजदूरों की संख्या बढ़ी

खेतिहर मजदूर उनको कहते हैं जिनके पास अपनी जमीन नहीं होती है लेकिन वो दूसरे की खेतों में दिहाड़ी पर खेती से जुड़े काम करते हैं. साल 1951 में भूमिहीन /खेतिहर मजदूरों की संख्या कुल आबादी की 28 फीसदी यानी 2 करोड़ से ज्यादा थी. लेकिन साल 2011 की जनगणना के मुताबिक ये संख्या 55 फीसदी यानी 14 करोड़ से ज्यादा हो गई.

खेती का रकबा कितना बड़ा?

सरकारी आंकड़ों की मानें तो भारत के 86 फीसदी किसानों के पास 1 से 2 हेक्टेयर खेती है. इनमें से सीमांत किसानों के पास 1 हेक्टेयर तक की जमीन है. सीमांत किसानों के पास औसत 0.37 हेक्टेयर जमीन है. इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर को मानें तो साल 2015 में एक स्टडी के मुताबिक अगर किसी के पास 0.67 हेक्टेयर जमीन है तो उससे हुई आय के बल पर कोई भी गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ सकता है.

कर्ज में डूबे छोटे किसानों की हालत खराब

सरकारी आंकड़ों की मानें तो ऐसे किसान जो 0.01 हेक्टअर से भी कम खेत के मालिक हैं वो कर्ज के जाल में फंसे हुए हैं. ऐसे किसानों की संख्या 24 लाख है और इनमें से 40 फीसदी पर 31000 का औसतन कर्ज है.

खेती का कथित ‘व्यापार’

इस समय कई लोगों ने ‘एग्रोटेक’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल खूब करते हैं. इसमें कोई दो राय नही है कि कुछ लोगों ने व्यवसायिक खेती करके अच्छा खासा पैसा कमा रहे हैं. लेकिन किसानों तक न तो इसकी जानकारी है और न हुनर पहुंच पाया है. सच्चाई ये है कि खेती में लागत और उससे होने वाली आय में बहुत अंतर है. 2010-11 के बीच किसानों की लागत और आय में अंतर बढ़ता चला जा रहा है.

न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP)

अब बात करते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की जिस पर बहस और आंदोलन चालू है. समर्थन मूल्य सरकारी की तरफ से गारंटी है कि वो किसानों से तय की गई कीमत पर ही फसल खरीदेगी. लेकिन बहुत से किसानों को इसके बारे में जानकारी नहीं है. सरकारी मंडियों में वो बिचौलियों के हाथों फसल बेचने को मजबूर होते हैं. यही वजह है कि किसान एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने की मांग कर रहे हैं. किसानों का कहना है कि एक बार कानून बन जाने पर एमएसपी से कम कीमत पर फसल खरीदना जुर्म के दायरे में जाएगा.

क्या है स्वामीनाथन फॉर्मूला

आंदोलन कर रहे कई किसानों की मांग है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को स्वामीनाथन आयोग के फॉर्मूले के हिसाब से दिया जाना चाहिए. आयोग ने C2+50% का फॉर्मूला सुझाया है जिसके मुताबिक C2 (लागत) और 50 फीसदी कुल लागत का दिया जाना चाहिए.

अभी MSP से खुश क्यों नही हैं किसान?

किसानों का मानना है कि सरकार की ओर से एमएसपी का ऐलान तो होता है कि लेकिन इसके तहत गेहूं, धान और कॉटन को छोड़कर बाकी फसलों को मंडियों में एमएसपी से कम ही कीमत पर खरीदा जाता है. दरसअल बाकी की फसलों की कीमत बाजार और प्राइवेट कंपनियों ही तय करती हैं. यही किसानों की सबसे बड़ी समस्या है.

दरअसल किसानों का ये भी कहना है कि उनकी मांग ये ही नहीं है कि सारा अनाज सरकार ही खरीदे, लेकिन एमएसपी कानून बन जाने पर तय कीमत से कम कोई भी प्राइवेट कंपनी भी खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी. लेकिन यहां सवाल इस बात का भी है कि जब खेती के सेक्टर में भूमिहीन या खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ रही है और कम हेक्टेअर की जोत वाले किसान ज्यादा हैं तो एमएसपी का कानून बन जाने पर ज्यादा फायदा किसे होगा?

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