ताकि हम जान सकें, कितनी मूल्यवान है हमारी आजादी
आज ही के दिन 93 साल पहले प्रयागराज के आजाद पार्क में शहादत देने वाले चंद्रशेखर आजाद को हम किस रूप में याद करें। स्वाधीनता के 77 साल बावजूद यह सवाल प्रासंगिक बना हुआ है । सशस्त्र क्रांति के जरिए देश को आजाद कराने वाले चंद्रशेखर आजाद का एक सपना था। वे एक ऐसा देश बनाना चाहते थे, जिसमें किसी को दर्द ना झेलना पड़े । आजाद के बारे में उनके सहयोगी क्रांतिकारी रहे शिव वर्मा ने एक जगह लिखा है कि आजाद कड़क मिजाज थे। लेकिन किसी का दर्द देखकर उनकी आंखों में पानी आ जाता था । लेकिन आजाद जैसे सेनानियों के सपने को हम पूरा कर पाए ? इस सवाल का जब हम जवाब खोजने की कोशिश करते हैं तो आजादी के बाद अगर हम अतीत से तुलना करेंगे तो निश्चित तौर पर भारत की आर्थिक तरक्की दिखेगी। लेकिन क्या इस तरक्की को हम देश के हर नागरिक तक आनुपातिक रूप से पहुंचा पाए हैं, जिससे कि वह अपनी जिंदगी सम्मानजनक ढंग से गुजार सके.. निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है ।
आम धारणा है कि चंद्रशेखर आजाद सशस्त्र क्रांति के समर्थक थे। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, राम प्रसाद बिस्मिल, बटुकेश्वर दत्त जैसे क्रांतिकारियों के साथ आजाद ने सशस्त्र क्रांति के जरिए देश को आजाद करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने अपने तई क्रांति की भी । लाला लाजपत राय के हत्यारे पुलिस अधिकारी सांडर्स को गोली मारकर ढेर करना हो या फिर क्रांति के लिए फंड जुटाने हेतु काकोरी एक्शन हो, आजाद ने क्रांति का बिगुल पूरे दमखम के साथ बजाया। लेकिन बाद के दिनों में उनका भी विचार बदलने लगा था । उन्हें लगने लगा था कि सिर्फ हथियारों के जरिए क्रांति संभव नहीं। इस दिशा में शोध कम ही हुए हैं । चंद्रशेखर आजाद को नियति ने महज 25 साल की ही जिंदगी दी। आज के दौर में तो इतनी उम्र के बाद ज्यादातर नौजवान अपनी जिंदगी के फलसफे को समझ तक नहीं पाते। लेकिन इतनी छोटी उम्र में चंद्रशेखर आजाद जो कर गए, वह इतिहास के सुनहले पन्नों में दर्ज है। लेकिन यह भी सच है कि आजादी के बाद सही मायने में क्रांतिकारियों को जो सम्मान मिलना चाहिए था, नहीं मिला।
सोशल मीडिया के जरिए एक अच्छा काम हो रहा है। कई बार हमारे समाज और हमारी राजनीति के स्याह पक्ष सोशल मीडिया के जरिए सामने आ जाते हैं। सोशल मीडिया के ही जरिए पता चला कि असेंबली में बम फेंकने में भगत सिंह के सहयोगी रहे बटुकेश्वर दत्त के आखिरी दिन किस हालत में पटना में कटे । चंद्रशेखर आजाद के घर की कहानी कोई नहीं जानता । किसी को पता नहीं है कि उनकी पुश्तैनी जमीन या घर की क्या हालत है। क्रांतिकारियों की इस
अनदेखी की ओर लोगों का ध्यान जाता रहा है। भारतीयता के गायकों को इसे लेकर टीस होती रही है। ऐसी ही टीस रही जीतेंद्र तिवारी की । यह टीस उनकी उभरी जब उन्होंने साल 2010 में हुए कामनवेल्थ खेलों के दौरान स्वेच्छा से ट्रैफिक पुलिस का सहयोग किया। पुलिस ने उन्हें सम्मानित किया, इसी दौरान जीतेंद्र को विचार आया कि क्रांतिकारियों की याद में एक म्यूजियम होना चाहिए । क्रांतिकारियों के सपनों को पूरा किया जाना चाहिए। इसी सोच को लेकर वे आगे बढ़ते रहे और एक दिन संयोजित रूप से काम करने के लिए उन्होंने मिशन वंदे मातरम फाउंडेशन की नींव रखी। इस सिलसिले में उन्होंने पहले कार्यक्रम के लिए दिन चुना 27 फरवरी। इसी दिन साल 1931 में अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने अपना बलिदान किया था ।
मिशन वंदे मातरम फाउंडेशन का आयोजन पहली बार 27 फरवरी 2015 को हुआ । इस लिहाज से इस संगठन ने दस साल की यात्रा पूरी कर ली है। इसी संगठन ने पहली बार वीर क्रांतिकारी योद्धाओं वीरांगनाओं का म्यूजियम बनाने की ऐतिहासिक मांग रखी। जिसे बाद के दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समझा और अब नेताजी की मूर्ति इंडिया गेट पर सुशोभित हो रही है । शहीद स्मारक आईटीओ पर क्रांतिकारियों की याद में पार्क बन चुका है । लेकिन क्या इतने भर से हमें संतुष्ट हो जाना चाहिए…
मिशन वंदे मातरम फाउंडेशन इससे संतुष्ट नहीं होने जा रहा, बल्कि क्रांतिकारियों की याद में वह देशभर में अलख जगाते रहने के अपने प्रण पर अटल है | क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान बीसवीं सदी के शुरूआती दिनों में क्रांतिकारी अजय बोस भी चंद्रशेखर आजाद के संपर्क में आए। अजय बोस बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव चुने गए। उन्हें पिछली सदी के दूसरे दशक में क्रांतिकारी आंदोलन के चलते जेल की सजा हुई । जेल से छूटने के बाद वे जब चंद्रशेखर आजाद से मिले तो आजाद बदल चुके थे।
बोस ने लिखा है ‘जब मैं जेल से बाहर आया और आजाद से मिला, तो मैंने पाया कि स्वतंत्रता संग्राम के बारे में उनके विचार काफी बदल गए थे’ उन्होंने कई बलिदानों के बावजूद स्वतंत्रता संग्राम को एक निश्चित आकार देने में क्रांतिकारी आंदोलन की विफलता पर विचार किया था, और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि क्रांतिकारी पार्टी के अधिक से अधिक सदस्यों को किसानों और श्रमिकों के बीच काम करना चाहिए… जबकि उन्हें आंदोलन की भविष्य की आवश्यकता के अनुसार कुछ चुनिंदा लोगों को सशस्त्र संघर्ष में प्रशिक्षित करना चाहिए…” शायद आजाद जिंदा रहते तो वे इस दिशा में आगे बढ़ते । लेकिन मुखबिरी के चलते प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस द्वारा घेर लिए गए। इसी दौरान उन्होंने खुद को गोली मार अपने को होम कर दिया। इसके बाद उनका सपना, महज सपना ही रह गया ।
आज की राजनीति करोड़ों में खेलती है, तमाम ऐश ओ आराम से वह लैस है। लेकिन जिन क्रांतिकारियों की वजह से देश आजाद हुआ, उनके सपने बेहद छोटे थे…प्रसिद्ध क्रांतिकारी और लेखक मन्मथनाथ गुप्त ने आजाद के बारे में जो लिखा है, उससे पता चलता है कि आजादी के बाद चंद्रशेखर किस तरह के सुकून की उम्मीद कर रहे थे । गुप्त ने लिखा है कि चंद्रशेखर आजाद, फुरसत और आनंद के क्षणों में गाते भी थे। फुरसत के वक्त वे अक्सर गुनगुनाते थे,
जेहि दिन मिली जाइ सुराजवा,
अरहर के दलिया, धान के भतवा
खूब कचर के खइबेना
ऐ रे जेहि दीन होइ जाई सुरजावा
यानी जिस दिन स्वराज मिल जाएगा… उस दिन अरहर की दाल और चावल का भात जमकर खाउंगा……कितना छोटा और सहज सपना था हमारे उस क्रांतिकारी का… जिसके नाम से अंग्रेजी सरकार कांप उठती थी…
मिशन वंदे मातरम फाउंडेशन राष्ट्र नायक चन्द्रशेखर आजाद के उसी सपने को पूरा करने की दिशा में जुटा है.. वह चाहता है कि क्रांतिकारियों की आवाज हमारे मानस में गूंजती रही, उनकी याद हमें झकझोरती रहे.. तभी हम हर भारतीय की आंख के आंसू पोंछ पाएंगे.. तभी हम समझ पाएगे कि हमारी आजादी कितनी कीमती है…